चोटी की पकड़–25
सात
तीसरे दिन राजा साहब की चलने की तैयारी हुई। एजाज को भी चलना था।
उससे बातचीत हो चुकी थी। उसने तैयारी कर ली। इस बार नसीम और सिकत्तर को यहीं छोड़ा। नसीम को कुल बातें लिखवा दीं। एक नकल अपने पास रखी।
थोड़ा-सा सामान और गुलशन को लेकर जेट्टी के लिए गाड़ी पर बैठी। राजा साहब के साथ कुल सहूलियतें हैं।
खुशी-खुशी चल दी। आदमियों से थानेदार साहब को भेद नहीं मालूम हो सका।
फाटक के बाहर रास्ते पर भेस बदले हुए पुलिस के सिपाही थे, कुछ और आदमी।
थानेदार निकलकर उल्टे रास्ते चले। काफी दूर निकल गए। फिर एक-एक छँटने लगे।
थानेदार रेलवे-स्टेशन से डायमंड हारबर की तरफ रवाना हुए।
जेट्टी से राजा साहब का स्टीमर लगा हुआ था।
आने-जाने के सुभीते के लिए उन्होंने खरीदा था। अच्छा-खासा स्टीमर, दो-मंजिला।
नीचे सामान लद चुका था। सिपाही, खानसामे, बाबू, पाचक और खिदमतगार आ चुके थे। डेक की एक बगल लोहे के चूल्हों पर खाना पक रहा था।
जाफरान और गर्म मसाले की खुशबू आ रही थी। ऊपरवाले डेक की सीढ़ी पर सशस्त्र पहरा लग चुका था।
केबिन में और जहाज के सामने ऊपरवाले डेक पर ऊँचे गद्दे बिछ गए थे। अभी राजा साहब नहीं आए। एजाज की गाड़ी आई।
गुलशन ने उतरकर गाड़ी का दरवाजा खोला और कब्जा पकड़ा; सहारे के लिए बाँह की रेलिंग बन गई।
एजाज उतरी। लोगों की आँखें जम गईं। रूप से हृदय भर गया। आज का पहनावा मोरपंखी है।
साड़ी का वही रंग, वही बूटे, फ़रमाइश से तैयार की हुई। ज़मीन सुनहरे तारों की।
सिर के कुछ बाल मोर की चोटी की तरह उठे हुए; हर डाँड़ी पर हीरे की कनियों के साथ नीलम बँधा हुआ।
पैरों में कामदार मोती-जड़ी जूतियाँ। उतरकर एजाज मोर की ही चाल से चली। जेट्टी की एक बगल पुलिस का सिपाही खड़ा था।
सलाम किया।
जेट्टी और नीचेवाले डेक पर राजा के लोग खड़े थे। देखकर खुश हुए, पर मुँह फेरकर दूसरे को सुनाकर गाली दी।
एजाज दूर थी। चलती हुई पास आई।
लोगों ने रास्ता निकाल दिया। डेक पर जाने की काठ की सीढ़ी लगा दी।
उस डेक से दूसरे तले की सीढ़ी पर वह चढ़ने लगी। सिपाही ने रानी साहिबा को सशस्त्र सलामी दी। हाथ उठाकर, एजाज ऊपर गई। गुलशन ने पूछा, "कहाँ रहिएगा?"